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स नो॑ वि॒श्वाहा॑ सु॒क्रतु॑रादि॒त्यः सु॒पथा॑ करत्। प्र ण॒ आयूं॑षि तारिषत्॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

sa no viśvāhā sukratur ādityaḥ supathā karat | pra ṇa āyūṁṣi tāriṣat ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

सः। नः॒। वि॒श्वाहा॑। सु॒ऽक्रतुः॑। आ॒दि॒त्यः। सु॒ऽपथा॑। क॒र॒त्। प्र। नः॒। आयूं॑षि। ता॒रि॒ष॒त्॥

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:25» मन्त्र:12 | अष्टक:1» अध्याय:2» वर्ग:18» मन्त्र:2 | मण्डल:1» अनुवाक:6» मन्त्र:12


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर भी अगले मन्त्र में उसी अर्थ का प्रकाश किया है॥

पदार्थान्वयभाषाः - जैसे (आदित्यः) अविनाशी परमेश्वर, प्राण वा सूर्य्य (विश्वाहा) सब दिन (नः) हम लोगों को (सुपथा) अच्छे मार्ग में चलाने और (नः) हमारी (आयूंषि) उमर (प्रतारिषत्) सुख के साथ परिपूर्ण (करत्) करते हैं, वैसे ही (सुक्रतुः) श्रेष्ठ कर्म और उत्तम-उत्तम जिससे ज्ञान हो, वह (आदित्यः) विद्या धर्म प्रकाशित न्यायकारी मनुष्य (विश्वाहा) सब दिनो में (नः) हम लोगों को (सुपथा) अच्छे मार्ग में (करत्) करे। और (नः) हम लोगों की (आयूंषि) उमरों को (प्रतारिषत्) सुख से परिपूर्ण करे॥१२॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में श्लेष और उपमालङ्कार हैं। जो मनुष्य ब्रह्मचर्य्य और जितेन्द्रियता आदि से आयु बढ़ाकर धर्ममार्ग में विचरते हैं, उन्हीं को जगदीश्वर अनुगृहीत कर आनन्दयुक्त करता है। जैसे प्राण और सूर्य्य अपने बल और तेज से ऊँचे-नीचे स्थानों को प्रकाशित कर प्राणियों को सुख के मार्ग से युक्त करके उचित समय पर दिन-रात आदि सब कालविभागों को अच्छे प्रकार सिद्ध करते हैं, वैसे ही अपने आत्मा, शरीर और सेना के बल से न्यायाधीश मनुष्य धर्मयुक्त छोटे मध्यम और बड़े कर्मों के प्रचार से अधर्मयुक्त को छुड़ा उत्तम और नीच मनुष्यों का विभाग सदा किया करे॥१२॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनरपि स एवार्थ उपदिश्यते॥

अन्वय:

यथादित्यः परमेश्वरः प्राणः सूर्यो वा विश्वाहा सर्वेषु दिनेषु नोऽस्मान् सुपथा करत् नोऽस्माकमायूंषि प्रतारिषत् तथा सुक्रतुरादित्यो न्यायकारी मनुष्यो विश्वाहेषु नः सुपथा करत् नोऽस्माकमायूंषि प्रतारिषत् सन्तारयेत्॥१२॥

पदार्थान्वयभाषाः - (सः) वक्ष्यमाणः (नः) अस्मान् (विश्वाहा) विश्वानि चाहानि च तेषु। अत्र सुपां सुलुग्० इति सप्तम्या बहुवचनस्याकारादेशः। (सुक्रतुः) शोभनानि प्रज्ञानानि कर्माणि वा यस्य सः (आदित्यः) विनाशरहितः परमेश्वरो जीवः कारणरूपेण प्राणो वा (सुपथा) शोभनश्चासौ पन्थाश्च सुपथस्तेन (करत्) कुर्यात्। लेट्-प्रयोगोऽयम्। (प्र) प्रकृष्टार्थे क्रियायोगे (नः) अस्माकम् (आयूंषि) जीवनानि (तारिषत्) सन्तारयेत्। अत्रान्तर्गतो ण्यर्थः॥१२॥
भावार्थभाषाः - अत्र श्लेषवाचकलुप्तोपमालङ्कारौ। ये मनुष्या ब्रह्मचर्य्येण जितेन्द्रियत्वादिनाऽऽयुर्वर्द्धयित्वा धर्ममार्गे विचरन्ति, तान् जगदीश्वरोऽनुगृह्यानन्दयुक्तान् करोति। यथाऽयं प्राणः सूर्य्यो वा स्वबलतेजोभ्यामुच्चावचानि स्थलानि प्रकाश्य प्राणिनः सुखयित्वा सर्वानहोरात्रादीन् कालविभागान् विभजतस्तथैव स्वात्मशरीरसेनाबलेन धर्म्याणि कनिष्ठमध्यमोत्तमानि कर्माणि प्रचार्य्याधर्म्याणि निवर्त्त्योत्तमनीचजनसमूहौ सदा विभजेत॥१२॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात श्लेष व उपमालंकार आहेत. जी माणसे ब्रह्मचर्य व जितेंद्रियता इत्यादींनी आयुष्य वाढवून धर्म मार्गाने चालतात, त्यांनाच जगदीश्वर अनुग्रहित करून आनंदयुक्त करतो. जसे प्राण व सूर्य आपल्या बलाने व तेजाने उंच-सखल भागांना प्रकाशित करून प्राण्यांना सुखाचा मार्ग प्रशस्त करतात व योग्य वेळी दिवसरात्र इत्यादी सर्व कालविभागांना सिद्ध करतात, तसेच आपला आत्मा, शरीर व सेनेच्या बलाने न्यायाधीशाने धर्माने कनिष्ठ, मध्यम, उत्तम कर्माचा प्रचार करून अधर्मापासून सुटका करावी व उत्तम आणि नीच माणसांमध्ये सदैव भेद करावा. ॥ १२ ॥